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फिल्म समीक्षा : मांझी: द माउंटेन मैन 4 स्टार

          इनदिनों बॉलीवुड में बयोपिक फिल्मों का चलन हैं और बॉक्स ऑफिस पर भी दर्शक के साथ इंडस्ट्री  बयोपिक फिल्मों पर रिस्क ले रही हैं, हालाँकि कुछ बयोपिक फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर कमाल नही दिखा पाई पर कुछ ने तो, जैसे भाग मिल्खा भाग और मेरी कौम ने सफलता का एक नया आयाम रच दिया.  तो अब केतन मेहता द्वारा ‘मांझी-द माउंटेन मैन’ भी दशरथ मांझी की बयोपिक हैं|
       ‘जब तक तोड़ेंगे नहीं, तब तक छोड़ेंगे नहीं’। दशरथ मांझी का यह संकप्ल था| गहरोल गांव में दशरथ माझी को धुन लगी थी पहाड़ तोड़ने की हुआ यु था कि उनकी पत्नी फगुनि पहाड़ से गिर गई थीं और समय पर अस्पताल नहीं पहुंच पाने की वजह से प्रसव के दौरान मर गई थीं। तभी मांझी ने कसम खाई थी | रास्ता बनाएंगे ताकि किसी और को शहर पहुंचने में उन जैसी तकलीफ से नहीं गुजरना पड़े। इसमें  दश्तरथ मांझी को 22 साल लग गए | निर्देशक केतन मेहता ने गहरोल के समाज की पृष्ठभूमि ली है। जमींदार के अन्याय और अत्याचार के बीच चूहे खाकर जिंदगी चला रहे मांझी के परिवार पर तब मुसीबत आती है, जब दशरथ को उसका पिता रहने पर देने की पेशकश करता है। दशरथ राजी नहीं होता और भाग खड़ा होता है। वह कोयला खदानों में सात सालों तक काम करने के बाद लौटता है। इस बीच गांव में कुछ नहीं बदला है। हां, सरकार ने छुआछूत खत्म करने की घोषणा कर दी है। दशरथ की खुशी तुरंत ही खत्म हो जाती है, जब जमींदार के लोग उसकी इसी वजह से धुनाई कर देते हैं। इस बीच दशरथ को एक लड़की से प्यार हो जाता हैं और मजे की बात तो यह हैं कि यह वही लड़की हैं जिससे उसकी बचपन में ही शादी हो गयी थी, पर उसके परिवार वाले दशरथ के बजाय किसी और से उसकी शादी रचते हैं पर दशरथ उसे यहा से भागा कर फिर उसी से शादी करता हैं, दुर्घटना में उसकी पत्नी का निधन हो जाता है। और फिर दशरथ संकल्प करता है। पहाड़ तोड़ने में सफल होता है। दशरथ मांझी के प्रेम और जिद में एक सामुदायिकता है। वह अपने समुदाय और गांव के लिए रास्ता बनाने का फैसला लेता है। इस फैसले में उसकी बीवी फगुनिया उत्प्रेरक का काम करती है। 
     यह फिल्म पूरी तरह से नवाजुद्दीन सिद्दीकी के कंधों पर टिकी है। उन्होंने शीर्षक भूमिका के महत्व का खयाल रखा है। उन्हें युवावस्था से बुढ़ापे तक के मांझी के चरित्र को निभाने में अनेक रूपों और भंगिमाओं को आजमाने का मौका मिला है। उन्होंने मांझी के व्यक्तित्व को समझने के बाद उसे प्रभावशाली तरीके से पर्दे पर उतारा है| राधिका भी भूमिका के साथ न्याय करती नजर आती हैं,फिल्म के बाकी किरदार पंकज त्रिपाठी, तिंग्मांशु धूलिया और प्रशांत नारायण पिछली पहचानों की वजह से याद रहते हैं। फ़िल्म के संवाद "भगवान के भरोसे मत बैठो, किया पता भगवान हमारे भरोसे पर बैठा हो," जैसे याद रहते हैं|
 
 पुष्कर ओझा