गुजरती फिल्म छेलो दिवस मतलब आखरी दिन तो खूब सरहाया गया था मैंने जब फिल्म देखी तब मुझे भी लगा की यह फिल्म हिंदी में भी बननी चाहिए, शायद मेरे दिल की आवाज़ निर्माता आनंद पंडित तक पहुच गई और फिल्म डे ऑफ़ तफरी का निर्माण कर दिया गया, छेलो दिवस के मुकाबले तफरी से उम्मीदे बढ़ इस लिए भी गई क्योंकि यह हिंदी भाषा में हैं , खरी उतरी करते है समीक्षा। .
कहानी कॉलेज के आखरी साल की है, चार दोस्त हैं निखिल ( यश सोनी ), विक्की (अंश बागरी), सुरेश ( संचय गोस्वामी ) और ढुला (सरबजीत बिंद्रा), चारो दोस्त पढ़ाई कम और मस्ती ज्यादा इनमे विक्की तो हर जगह मस्ती ही मस्ती करता है फिर क्लास रूम हो या कॉलेज कंपाउंड, इनकी कॉलेज में पूजा ( निमिषा मेहता) का एडमिशन होता है, जिससे निखिल चाहने लगता हैं, दोनों का प्यार परवान चड़ता हैं, खेर वक़्त बीतता है, और वह दिन आता हैं जब कॉलेज का आखरी दिन हैं, पर उस दिन एक घटना घटती हैं, विक्की का एक्सीडेंट हो जाता है और वह हॉस्पिटल में ज़िन्दगी और मौत के बिच झुंज रहा हैं । अब क्या विक्की बच जाता हैं, क्या निखिल पूजा को आखरी दिन अपने प्यार का इजहार करता , इन सब के लिए आपको फिल्म देखनी होंगी ।
आपको अपने कॉलेज के दिन जरूर याद आएंगे, फिर वह निखिल के रूप में हो या विक्की के या ढुला के या सुरेश के या फिर पूजा के आप अपने उस दौर में चले जायेंगे जब आप कॉलेज में थे , या आप अब भी कॉलेज में हो तो आपके आस पास भी इस तरह के नमूने होंगे ही, या हो सकता है की इनमे कही आपका किरदार भी नज़र आ ही जाए ।
स्क्रिप्ट की बात करे तो गुजराती फिल्म की हूबहू कॉपी की हैं, कुछ नया नहीं किया है, अगर आपने गुजराती फिल्म देखी हो तो, स्क्रिप्ट अच्छी हैं जिसे और अच्छी तरह से पिरोया जा सकता था, हिंदी दर्शक थोड़े अलग होते हैं काश इस बात का ध्यान रखा होता । लोकेशन कॉलेज ही हैं, सिनेमेटोग्राफी अच्छी हैं ।
अभिनय की बात करे तो खासकर विक्की यानी अंश बागरी ने अपने किरदार को खूब निभाया हैं, ऐसा नहीं की यश सोनी, संचय गोस्वामी और सरबजीत बिंद्रा या निमिषा मेहता ने अपने अभिनय में कोई कसर छोड़ी हो, सभी का अच्छा अभिनय , साथ ही अन्य कलाकारों भी अपने किरदारों में सटीक बैठे ।
कमजोर कड़ी की बात करे तो कई हैं उसकी गति तो कुछ ज्यादा ही लंबी नज़र आती हैं, सीन भी लगता हैं न जाने क्यू पिरोये गए हैं, मैं फिर कहता हूँ यह हिंदी फिल्म हैं यहाँ के दर्शको की संख्या अलग होती हैं ।
संगीत ठीक ठाक ही हैं कोई इस तरह का गाना नहीं की आप थेयटर के बाहर आ कर याद रहे ।
कहते हैं की नक़ल में भी अकल होनी चाहिए जो यहाँ नज़र नहीं आई ।
फिल्म एक बार देखी जा सकती हैं ।
पुष्कर ओझा