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गुड्डू की गन सोने की पर फ़िल्म पीतल की भी नही है

                अब भइया का बताए तोहे बड़ी दुविधा में फँस गईलबा, हमार गन सोने की हो गइल, का बताएँ हमार नाम बाँटे गुड्डू हम वाशिंग पाउडर का सलेस मैन हूँ, पर पाउडर के साथ हम भाभीओ के साथ खूब रंग रलिया मनाने में माहिर हूँ, फ़िल्म गुड्डू की गन में बिहारी भाषा का कुणाल खेमु ने प्रयोग किया है,  एक दिन उनकी गन सोने की हो जाती है, जिसका कारण बताया है कि वह एक लड़की से प्यार करने का नाटक करता है यह बात जब उसे पता चलती है तो उस लड़की के दादा काला जादू कर गुड्डू की गन सोने की बना देता है, अब गुड्डू को निजात पाना हो तो उसे उस लड़की को खोजना होंगा जिससे वह सच्चा प्यार करे और वह भी उसे सच्चा प्यार करे तो ही उसकी गन ठीक हो सकती है, वह भी दस दिन के अन्दर| उसे मिलती भी है, काली नाम की लड़की जो निखने में बदसूरत भी है और उसकी चंद दिनों में शादी भी होने वाली है और इस तरफ़ गुड्डू की गन के पिछे माफिया भी लग गई है| फ़िल्म हास्यात्मक  तरीके से भरपूर कोशिश की हसाने की, दर्शक हँसते भी है, और लगता है की क्या बॉलीवुड में कहानियों का अकाल पड़ गया है जो इस तरह की कहानी परोसी जा रही है| कुणाल के पास फिल्में नही है इसका मतलब यह है की वह इस तरह की फिल्में करेंगे| ठीक है फ़िल्म में एक अच्छा मेसज भी है कि रंग रुप न देखो लड़की का दिल देखा जाता है| पर गन और जिस तरह के सवाद है फ़िल्म में सुनने मिलें है| एक और बात समज में नही आई की कोलकत्ता के  बैकड्रॉप में बिहारी भाषा | कुणाल को क्या हिन्दी भाषा नही आती है, ठीक है वह फ़िल्म में बिहारी बताए गए है तब भी| यह फ़िल्म बिहारीयों को खूब पसंद आ सकती है| हम तो बता दिए जो बताना था अब तोहरा मर्जी बाँटे की तू फ़िल्म देखने जाबे की ना जाबे.   

पुष्कर ओझा