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फ़िल्म अलीगढ़ सवेंदनशील और अकेलेपन की दास्तान ( स्टार 3)






                                   


                      सेक्सन 377 जैसे सवेदंशिल टॉपिक को छूने का आमादा हंसल मेहता ही कर सकते है| उनकी पिछली फ़िल्म शाहिद और सिटीलाइट, से हंसल ने बॉलीवुड में एक नई सोच और नई फिल्में देने का और साथ ही अपनी कहानी के जरिए वह सब कह देने का हौसला नजर आता है| हंसल 
की आगामी फ़िल्म अलीगढ़ इस फ़िल्म के जरिए हंसल ने उस मुद्दे को छूने का प्रयत्न किया है जिसे छूने की कोशिश आज के किसी भी निर्देशक और निर्माता की हिम्मत ही नही होती|  इस बार अल्पसंख्यक समुदाय के व्यक्ति को चुना है| 
    अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के एक मात्र मराठी प्रोफेसर श्रीनिवास रामचंद्र सिरस जो अपनी निजी ज़िंदगी और  अकेलेपन से खुश है| पर हमने अकसर देखा और महसूस किया होंगा की एक आदमी जब अकेला रहता है तो समाज के कथित संरक्षक और ठेकेदार  ऎसे व्यक्ति को जिने कहा देती है उन्हें तबाह करने की भरकश  कोशिश की जाती है| उन्हें शर्मसार करने| उन पर उंगलियां उठाईं जाती है| प्रोफेसर सिरस तो ऎसे इंसान है, जिनकी सिख तक नही निकलती है, वह तो मानते है की चुप रहना ही उनका सही जवाब है| उन्हें जवाब की तलाश हो तो उनकी नम और भरी आँखें देख लो जवाब अपने आप मिल जायेंगा| 
प्रोफेसर सिरस का दिनचर्या पढने पढाई  के साथ शरू होता है, और शाम को 2 पैक विस्की और लता मंगेशकर के गाने के साथ अपने यौन सम्बन्ध से संतुष्ट है| उनकी इस ज़िंदगी में तब हाहाकार मचता है जब दो रिपोर्टर उनकी पेर्सनल लाइफ को  सार्वजनिक कर देते है| और उनकी अपनी यूनिवर्सिटी उनकी एक भी नही सुनती है|उलटा उन्हीं को दोषी मानती है| और उन्हें बर्खास्त कर दिया जाता है| इनकी आवाज़ भले ही किसी ने न सुनी हो पर दिल्ली में बैठा एक युवा पत्रकार को यह आवाज़ सुनाई दे गई| वह अपनी कलम से प्रोफेसर सिरस की आवाज़ बनता है| साथ ही प्रोफेसर को जागरूक भी करने की कोशिश करता है| प्रोफेसर सिरस को इंसाफ दिलाने के लिए  अदालत का दरवाज़ा खटखटाया जाता है|  जहां प्रोफेसर की जीत होती है|
   हंसल मेहता ने प्रोफेसर सिरस की छवि को पर्दे पर बखूबी उतारा है| उन्होंने अकेलेपन और उदासी से जिने वालों को एक अलग आयाम देने की कोशिश की है| प्रोफेसर सिरस के किरदार में मनोज बाजपई  ने अपने भाव उसकी हँसी खुशी और अकेलेपन को निभाने की अच्छी कोशिश की है, एक कलाकार की यही तो कला होती है जिसमे मनोज बाजपई खरे उतरे है| हंसल मेहता ने भी अपनी गंभीरता दिखाई है| उन्होंने मुद्दे से कहानी को भटकने और किरदार को उल्जनो से बचाए रखा|
पुष्कर ओझा